paper chromatography पेपर क्रोमैटोग्राफी।
उत्तर- पेपर क्रोमैटोग्राफी (Paper Chromatography)
पेपर क्रोमैटोग्राफी जैव-अणुओं (Biomolecules) को पृथक् करने की एक सरल विधि है। यह दो अमित्रणीय (Immisible) द्रवों के बीच मिश्रण पर आधारित है। इसका उपयोग अर्मोनो अम्लों, पेप्टाइड्स, शर्करा आदि को विलग करने में होता है। यह निम्नलिखित प्रकार का हो सकता है-
1. आरोही पेपर क्रोमैटोग्राफी (Ascending paper chromatography) - इस तकनीक में व्हाटमैन
1 No. कागज (Whatman no. 1 paper) का उपयोग सहायक माध्यम (Supporting medium) के रूप में किया जाता है। जिस पर मिश्रण का बहाव ऊपर की ओर होता है। यह ऐसा कागज होता है, जिस पर मिश्रण की गति धीमी होती है। इस विधि में उन विलायकों का उपयोग किया जाता है, जो पानी के साथ पूर्णरूप से अमिश्रणीय होता है।
प्रयोग के समय पेपर को पट्टी के एक सिरे पर लगभग 3 सेमी ऊपर पेंसिल से एक लकीर खींच दी जाती है। लकीर पर एक बिन्दु चिन्हित कर दिया जाता है। इस बिन्दु पर घोल के मिश्रण की एक बूँद (जिसे पृथक् करना है) डाल दी जाती है। प्रतिदर्श (Sample) मिश्रण को कागज पर डालने की विधि बहुत निर्णायक होती है। प्रतिदर्श का अंकन कई बार किया जाता है, परन्तु प्रत्येक बार मिश्रण को सुखाना आवश्यक होता है। इसके लिए गर्म अथवा ठण्डी हवा का उपयोग किया जाता है। अब इस सुखाये हुए कागज को एक वायुरोधी (Air tight) बेलनाकार जार (Jar) अथवा टैंक (Tank) में रखा जाता है। इसमें विलायक का द्रवीय घोल भरा होता है। कागज को जार में इस प्रकार लटकाया जाता है कि अंकित मिश्रण नीचे की ओर हो। सावधानी रखी जाती है कि अंकित मिश्रण विलायक के स्तर के नीचे न हो, बल्कि केवल कागज के किनारे को छूता रहे।
जब कागज पर विलायक लगभग 2-3 सेमी चला जाता है, तो कागज को सावधानीपूर्वक टैंक से निकाल लिया जाता है। इसे अब क्रोमैटोग्राम कहते हैं। यदि मिश्रण के अवयव रंगीन होते हैं। (जैसे- क्लोरोफिल, जेन्योफिल, केरोटिनॉइड आदि) तो उन्हें क्रोमैटोग्राम पर आसानी से पहचाना जा सकता है, परन्तु यदि ये रंगहीन होते हैं, तो पेपर को विशिष्ट रसायनों से अभिरंजित कर मिश्रण के अवयवों को पहचाना जाता है। उदाहरणार्थ, प्रोटीन, पेप्टाइड्स अथवा अमीनो अम्लों को पहचानने के लिए निनहाइड्रिन घोल (Nynhydrin solution) का उपयोग किया जाता है। शर्कराओं को पहचानने के लिए पोटैशियम मैंगनीज फॉस्फेट का उपयोग
किया जाता है। अभिक्रिया के फलस्वरूप जहाँ-जहाँ भी यौगिक होते हैं, वहाँ-वहाँ रंगीन अंकन या चिन्ह दिखाई देते हैं। अब इस कागज को विकसित क्रोमैटोग्राम (Developed chromatogram) कहते हैं। क्रोमैटोग्राम पर यौगिकों द्वारा तय की गयी दूरी लाक्षणिक होती है। इसे यौगिकों को पहचानने में उपयोग में लाया जाता है। यौगिक द्वारा चली गई दूरी तथा विलायक के द्वारा तय की गयी दूरी के अनुपात को R, मान कहते हैं। इसे निम्नलिखित समीकरण द्वारा प्रस्तुत किया जाता है-
यौगिकों द्वारा पेपर पर तय की गयी दूरी विलायक द्वारा पेपर पर तय की गयी दूरी Ry R = मान का उपयोग यौगिकों को पहचानने में किया जाता है।
2. अवरोही पेपर क्रोमैटोग्राफी (Descending paper chromatography) -
यह विधि आरोही (As- cending) पेपर क्रोमैटोग्राफी के समान ही है, परन्तु कागज पर अंकित मिश्रण को जार के ऊपर की ओर रखा जाता है। साथ ही विलायक को जार के पेंदी में नहीं रखा जाता है। इसे रखने के लिए जार के ऊपरी भाग में एक सँकरा ट्रे (Narrow tray or trough) के समान रचना बनी होती है। पेपर का ऊपरी भाग ट्रे में रखे इस विलायक को छूता रहता है। इस प्रकार विलायक का बहाव ऊपर से नीचे की ओर होता है, इसलिए इसे अवरोही पेपर क्रोमैटोग्राफी (Descending paper chromatography) कहते हैं।
3. द्विविमीय क्रोमैटोग्राफी (Two dimensional chromatography) -
कुछ निश्चित दशाओं (जैसे- तापक्रम, विलायक तंत्र, बहाव की दिशा, पेपर के प्रकार आदि) में दो या दो से अधिक अवयवों अथवा यौगिकों का बहाव पेपर पर समान दूरी तक होता है। इन यौगिकों को अलग करने के लिए दो भिन्न विलायकों के साथ दो भिन्न दशाओं में चलाकर क्रोमैटोग्राम विकसित किया जाता है।
इस विधि में मिश्रण को कागज के एक कोने पर चिन्हित किया जाता है। इसे एक विलायक में एक दिशा में विकसित किया जाता है। क्रोमैटोग्राम के सूखने पर इसे 90° पर घुमाया जाता है तथा इसे दूसरे विलायक में पुनः विकसित किया जाता है। विकसित चिन्हों को उनके आमाप, दूरी तथा रंगों के आधार पर पहचाना जाता है।
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