BHARAT AUR VISHWA KA BHUGOL IN HINDI

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 BHARAT AUR VISHWA KA BHUGOL IN HINDI


सामान्य भूगोल

"ब्रह्माण्ड असीमित रूप में फैला हुआ है, जिसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में कोई निश्चित धारणा है। यद्यपि बहुत सारे सिद्धान्तों के माध्यम से इसकी उत्पति की प्रक्रिया को समझने का प्रयास किया गया है। ब्रह्माण्ड की विशालता के अन्तर्गत अनेक ग्रह, उपग्रह, क्षुद्रग्रह एवं खगोलीय पिण्ड आदि समाहित हैं।"

ग्लोब 

ग्लोब पृथ्वी को लघु रूप में दिखाने वाला एक मॉडल अथवा प्रतिरूप है। ग्लोब पर धरातलीय आकृतियों व दिशाओं को आसानी से दर्शाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त ग्लोब पर देशों, महाद्वीपों तथा महासागरी को उनके सही स्थानों पर दिखाया जा सकता है।

अक्षांश रेखा

किसी स्थान से भूमध्य रेखा से उत्तर तथा दक्षिण की ओर की कोणीय दूरी को उस स्थान का अक्षांश (Latitude) कहते हैं। अन्य शब्दों में ग्लोब या मानचित्र पर खींची गई क्षैतिज रेखाएँ रेखाएँ होती है। विषुवत् रेखा सबसे लम्बी रेखा है। (40069 किमी) विषुवत् रेखा से ध्रुवों की ओर अक्षांश रेखाओं की लम्बाई कम होती जाती है। विषुवत् रेखा से ध्रुवों तक 90 अक्षांश होते हैं। सभी अक्षांश रेखाएँ समानान्तर होती है, व दो अक्षांशों के मध्य की दूरी 111 किमी होती है। विषुवत् रेखा पृथ्वी को दो भागों में विभाजित करती है, जिन्हें उत्तरी व दक्षिणी गोलार्द्ध कहते है। 23,1/2 उत्तरों व दक्षिणी अक्षांश रेखा को क्रमशः कर्क रेखा व मकर रेखा कहते हैं।

देशान्तर रेखाएँ

उत्तरी व दक्षिणी ध्रुवों को मिलाने वाली काल्पनिक रेखाओं को देशान्तर रेखाएँ (Longitude) कहते हैं। ये रेखाएँ लम्बवत् होती हैं, व समानान्तर नहीं होती हैं। दो देशान्तर रेखाओं के मध्य भूमध्यरेखा पर दूरी 111.32 किमी होती है, जो ध्रुवों की ओर कम होती जाती है। इन्हें बृहत वृत्त (Great circle) भी कहते हैं।

ब्रह्माण्ड

सामान्य रूप से पृथ्वी, ग्रहों, उपग्रहों, सौरमण्डल, तारों एवं आकाश गंगाओं के सम्मिलित पुंज को ब्रह्माण्ड (Universe) की संज्ञा दी जाती है। ब्रह्माण्ड आकार एवं परिमाण में बड़ा होता है, इसमें छोटे परमाणु से लेकर आकाश गंगा तक बड़े समूह पाए जाते हैं।

ब्रह्माण्ड के सम्बन्ध में क्लाडियस टॉलमी ने सर्वप्रथम बताया कि पृथ्वी ब्रह्माण्ड के केन्द्र में है और सूर्य तथा अन्य ग्रह इसकी परिक्रमा करते हैं। इसको जियोसेण्ट्रिक अवधारणा (Geocentric theory) कहा जाता है। इस अवधारणा में परिवर्तन कॉपरनिक्स ने सन् 1443 ई. में किया और बताया कि सूर्य ब्रह्माण्ड के केन्द्र में है और पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा कर रही है। इस अवधारणा को हेलियोसेण्ट्रिक (Heliocentric) कहा जाता है। ब्रह्माण्ड में लगभग 100 अरब आकाशगंगाएँ हैं।

ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति से सम्बन्धित सिद्धान्त

ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति से सम्बन्धित विभिन्न सिद्धान्त इस प्रकार है

बिग बैंग सिद्धान्त (जॉर्ज लैमेण्टेयर द्वारा) यह ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति सम्बन्धी सर्वमान्य सिद्धान्त है। इसे विस्तारित

ब्रह्माण्ड परिकल्पना (Expanding universe hypothesis) कहा जाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार, ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति एक बड़े विस्फोट से हुई है। यह समय लगभग 15 अरब वर्ष पूर्व का था। आरम्भ में सभी पदार्थ, जिससे ब्रह्माण्ड बना है, एकाकी परमाणु के रूप में एक ही स्थान पर स्थित थे। इसका आयतन अति निम्न तथा तापमान उच्च था। इस प्रक्रिया के दौरान इन परमाणुओं में भीषण विस्फोट हुआ एवं विस्फोट के पश्चात् विस्तार हुआ। इसी विस्तार के फलस्वरूप वर्तमान ब्रह्माण्ड का स्वरूप प्राप्त हुआ। यह विस्तार आज भी जारी है। इसका प्रमाण आकाशगंगाओं के बीच बढ़ती दूरियों से देखा जा सकता है।

 डॉप्लर विस्थापन (Dopplers Effect)

इसने आकाशगंगाओं से आने वाले प्रकाश के स्पैक्ट्रम के आधार पर विश्व के विस्तार के बारे में बताया गया है।। यदि स्पैक्ट्रम में रक्त विस्थापन (Fed shilt) की घटना हो, तो प्रेक्षित आकाशगंगा पृथ्वी से दूर भाग रही है और यदि स्पैक्ट्रम में बैंगनी विस्थापन (Viciet shith) हो तो प्रेक्षित आकाशगंगा (Observed (galany) पृथ्वी के पास आ रही है। यही डॉप्लर विस्थापन (Dopplers effect) है, चूंकि अभी तक सपैक्ट्रम में रका विस्थापन की घटना के प्रमाण मिले हैं। अतः आकाशगंगा दूर भाग रही है।

खगोलीय दूरी

खगोलीय दूरियाँ बाहरी अंतरिक्ष की दूरियाँ होती है जो पृथ्वी की दूरियों की अपेक्षा काफी बड़ी होती है।

खगोलीय दूरियों को मापने के लिए प्रकाश वर्ष का प्रयोग किया जाता है। इन दूरियों को प्रकाश वर्ष में मापने का प्रमुख कारण है कि प्रकाश की गति (स्पीड) सदैव एकसमान होती है।

हब्बल का नियम

वर्ष 1929 में एडविन हब्बल ने डॉप्लर सिद्धान्त के आधार पर यह प्रमाण दिया कि ब्रह्माण्ड का विस्तार हो रहा है। हब्बल महोदय ने इसके लिए रेड शिफ्ट परिघटना को प्रतिपादित किया। अन्तरिक्ष में रेड शिफ्ट

परिघटनाएँ ब्रह्माण्ड के निरन्तर विस्तरण के साक्ष्य है। यदि हम प्रकाश स्रोत की ओर चले तो प्रकाश तरंग की आवृत्ति में आभासी वृद्धि होगी, इसके विपरीत प्रकाश स्रोत से दूरी बढ़ती जाए, तो प्रकाश की आवृत्ति (Frequency) में आभासी हास (Loss) होगा।


हिग्स बोसॉन (गॉड पार्टिकल)


ब्रह्माण्ड के रहस्यों को जानने के लिए वर्ष 2010 में यूरोपियन सेण्टर कॉर न्यूक्लियर रिसर्च (CERN) ने जेनेवा में पृथ्वी की सतह से 100 फीट नीचे और 27 किमी लम्बी सुरंग में लॉर्ज हैडून कोलाइडर NC) नामक महाप्रयोग किया। इसमें 1000 से अधिक वैज्ञानिकों ने भाग लिया। वस्तुतः वैज्ञानिक 15 अरब वर्ष पहले सम्पन्न ब्रह्माण्डीय घटना को प्रयोगशाला में करना चाहते हैं, जिसे विज्ञान की दुनिया में बिन बैंग के नाम से जाना जाता है। ऐसा माना जाता है कि गॉड पार्टिकाय के नाम से जाना जाने वाला हिग्स बौसीन में ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के रहस्य छिपे हैं, क्योंकि हिम्स बोसॉन को बेसिक यूनिट माना जाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार, ब्रह्माण्ड में ऐसे पदार्थ की मौजूदगी है, जो अदृश्य है और ब्राह्माण्ड का 90-95% द्रव्यमान इसी अदृश्य पदार्थ के कारण है। वैज्ञानिकों ने इसे खार्क मैटर (Dark Matter) दिया है। नाम

खगोलीय पिण्ड

आकाश में दिखाई पड़ने वाले अनेक पिण्ड; जैसे- तारे, आकाशगंगा, ग्रह, उपग्रह, क्षुद्रग्रह, धूमकेतु इत्यादि खगोलीय पिण्ड (Heavenly bodies) कहलाते हैं।

आकाशगंगा

आकाशगंगा (Galaxy) तारों का एक विशाल पूँज है। ब्रह्माण्ड में लगभग 100 अरब आकाशगंगाएँ हैं। प्रत्येक आकाशगंगा में अरबों तारे हैं। तारों के अतिरिक्त आकाशगंगा में गैसें (Gases) एवं धूल (Dust) भी पाई जाती है। आकाशगंगा में 98% भाग तारे तथा 2% भाग गैस एवं धूलकण का होता है। आकाशगंगा को प्रायद्वीपीय ब्रह्माण्ड भी कहा जाता है। पृथ्वी एरावत पथ (Milky way) नामक आकाशगंगा का एक भाग है। वृहत मैगेलेनिक मेघ, लघु मैगेलेनिक मेघ, उर्सा माइनर सिस्टम, स्कल्पचार सिस्टम और डेको सिस्टम अन्य आकाशगंगाएँ है

आकृति के आधार पर तीन प्रकार की आकाशगंगाएँ होती है

1. सर्पिल (Spiral) सर्पिल आकाशगंगाओं के केन्द्र में तारों का अधिक जमाव पाया जाता है। ये तश्तरी के आकार की आकाशगंगा होती है। समस्त आकाशगंगाओं में एक चौथाई आकाशगंगा इसी प्रकार की है। मिल्की वे (Milky Way) एवं एण्ड्रोमडा (Andromeda) इसके उदाहरण हैं।

2. दीर्घवृत्तीय (Elliptical) ब्रह्माण्ड की लगभग दो तिहाई आकाशगंगा दीर्घवृत्तीय (Elliptical) है। ये सर्पिल आकाशगंगा से आकार में छोटी होती है। इसका आकार अण्डाकार होता है। इसमें अधिकांशतः पुराने तारे होते हैं। इस प्रकार के आकाशगंगा में नवीन तारों का निर्माण नहीं होता है।

3. अनियमित (Irregular) अनियमितताकार आकाशगंगाएँ मुख्यतः नवीन तारों द्वारा निर्मित होती हैं। ब्रह्माण्ड के सम्पूर्ण आकाशगंगा का दसवाँ भाग इसी प्रकार का है।

तारामण्डल

आकाशगंगा में कुछ सुन्दर एवं व्यवस्थित आकृतियों के रूप में पाए जाने वाले तारों के समूह की तारामण्डल (Constellation) कहा जाता है;

जैसे-मन्दाकिनी आकाशगंगा में पाया जाने वाला सप्तऋषि मण्डल (Ursa major great bear), ओरिऑन (Orion great hunter), हाइड्रा, ध्रुवतारा (Polestar), हरकुलीज इत्यादि तारामण्डल के उदाहरण है।

तारे

आकाशगंगा में गैस एवं धूल के बादल होते हैं। सम्भवतः इन्हीं धूलकण एवं गैसों से तारों का निर्माण होता है। ये तारे निरन्तर ऊर्जा मुक्त करते रहते हैं। सूर्य भी एक तारा है।

क्वैसर

क्वैसर (Quasars) वे आकाशीय पिण्ड है, जो आकार में आकाशगंगा से छोटे है, परन्तु उससे अधिक मात्रा में ऊर्जा का उत्सर्जन करते हैं। इसकी खोज वर्ष 1962 में की गई थी।

क्षुद्रग्रह

क्षुद्रग्रह (Asteroids) मंगल एवं बृहस्पति ग्रह के मध्य पाए जाने वाले छोटे आकाशीय पिण्ड हैं। ये एक प‌ट्टी के रूप में विद्यमान हैं। इन्हें लघु ग्रहिकाएँ भी कहा जाता है। इनका निर्माण भारी धातुओं से हुआ है। ये क्षुद्रग्रह जब पृथ्वी से टकराते हैं, तो पृथ्वी की सतह पर विशाल गर्त बन जाता है। महाराष्ट्र की लोनार झील (Lonar Lake) इसका उदाहरण है।

क्यूपर बेल्ट

क्यूपर बेल्ट (Kuiper Belt) मलबों की वृहत पट्टी है, जो क्षुद्रग्रह के समान है, परन्तु यह बर्फ से निर्मित है। ऐसा माना जाता है कि धूमकेतु का आगमन इन्हीं बेल्टो से होता है।

धूमकेतु

धूमकेतु (Comets) हिमशीतित गैसों से निर्मित ऐसे चट्टानी एवं धातु पदार्थ है, जो सूर्य से मिलने वाली ऊष्मा के कारण पिघलकर पूँछ बनाते हुए सूर्य के चारों ओर चलते हैं। यह प्रत्येक 76 वर्ष बाद दिखाई देता है, इसके पूर्व यह वर्ष 1986 में दिखाई दिया था। धूमकेतु का पूँछ सदैव सूर्य के विपरीत दिशा में होता है।

उल्का

आकाश में ऐसे चमकीले पदार्थ, जो रात्रि में पृथ्वी की और गिरते हुए नजर आते हैं। ये क्षुद्र ग्रह या अन्य आकाशीय पिण्डों के टुकड़े होते हैं। जब ये पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में प्रवेश कर जाते हैं, तो ये पृथ्वी के वायुमण्डल से घर्षण करने के कारण जलकर नष्ट हो जाते हैं। ये पिण्ड ही टूटते हुए तारे जैसे लगते हैं, इन्हें ही उल्का (Meteors) कहते है।



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